वाक्‌ सुधा सबकी पत्रिका है, जो बिना किसी पूर्वाग्रह के सभी पक्ष, पंथ, संप्रदाय, संस्था व विचारधाराओं पर लिखे गऐ रचनात्मक शोध को एक साथ प्रस्तुत करती है। अपनी अद्‌भुत सामग्री के कारण पाठकों से जुड़ रही है। भाषा, शैली, कलेवर और चरित्र की दृष्टि से हिन्दी भाषा की शोध पत्रिका है। इसके साथ सामग्री की दृष्टि से इसका सरोकार मानवीय है। यह ज्ञान का अद्वितीय संगम है। हिन्दी में इस समय उत्कृष्ट एवं बहुत ही गंभीर शोधकर्त्ता हैं। परन्तु उनको एक अच्छा मंच नहीं मिल पाता है। वाक्‌ सुधा एक ऐसा मंच है जहाँ प्रबुद्ध शोधार्थी अपने शोध को साधारण नागरिक के लिए उपयोगी बना सकते हैं। इसके साथ ही आम नागरिकों की चुनौतियों को समझकर ऐतिहासिक संदर्भों का उल्लेख करते हुए समाधान प्रस्तुत कर सकते हैं। पिछले एक साल में यह पत्रिका शोध के क्षेत्र में मुख्यधारा की शीर्षस्थ पत्रिकाओं में अपना स्थान बना चुकी है। देश के ख्याति प्राप्त प्रतिष्ठित विद्वानों की बनायी गयी ‘सलाहकार परिषद्‌’ और ‘संपादक मंडल’ के नेतृत्व में शोध आलेखों का प्रकाशनार्थ चयन किया जाता है। शोध आलेख का मूल्यांकन संदर्भ, सार्थकता और सरोकार के आधार पर किया जाता है। पत्रिका के संरक्षक, संपादक एवं अन्य सहयोगी सदस्यों का एक मात्र लक्ष्य शोध पत्रिका के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ विकल्प देना है। मेरे शोध अध्ययन और अध्यापन के समय कई बार शोधार्थी सहयोगी यह कहा करते थे कि शोध में वही सब कुछ करना पड़ता है, जो शोध निर्देशक चाहते हैं। मेरे मन की बात तो मन में ही रह गयी। शायद मैं अपने मन की बात कभी कह सकूँगा? ऐसे सभी शोधार्थियों का वाक्‌ सुधा में हार्दिक स्वागत है। इस पत्रिका के माध्यम से आप तर्क एवं प्रमाण सहित मन की बात भी कह सकते हैं।

वैश्वीकरण के दौर में भी वाक्‌ सुधा लोकहितकारी, नए शोध संस्कारों को विकसित करने के लिए दृढ़ संकल्पित है। आमतौर पर बड़ी पूंजी का दवाब विज्ञापन तथा पैसों का लालच शोध पत्रिका को पथ भ्रष्ट कर देता है, लेकिन वाक्‌ सुधा भय, लोभ एवं दवाब से मुक्त होकर अनुसंधानात्मक ज्ञान को राष्ट्र निर्माण के लिए लगाना चाहती है। देश आज रचनात्मक परिवर्तन के मुहाने पर खड़ा है। कई पुरानी परम्पराएं अप्रासंगिक हो रही हैं। अप्रासंगिकता के दौर में इस पत्रिका के प्रकाशन का उद्‌देश्य समाज के समक्ष भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता, भूगोल, इतिहास, राजनीति-शास्त्र, समाज-शास्त्र, हिन्दी, संस्कृत, पाली, प्राकृत, उर्दू, अर्थशास्त्र एवं वाणिज्य विषयों के शोध लेख प्रस्तुत करना है तथा वे शोध लेख गवेषणात्मक होने चाहिए। लेख प्राचीन परम्पराओं से हटकर आत्म-अभिव्यक्तिपूर्ण होने चाहिये।

यद्यपि उपर्युक्त सभी विषय छात्रों को प्रारम्भ से लेकर अन्तिम कक्षाओं तक अध्यापित हैं, जिनसे उन विषयों का ज्ञान होना स्वाभाविक है अत: उन विषयों को यथा तथ्य प्रस्तुत करना शोध लेख का उद्देश्य नहीं है। लेख में लेखक की अपनी सोच होनी चाहिये तथा वह सोच संशोधनपरक होनी चाहिये। उसमें परोपकार की भावना का पुट परमावश्यक है, क्योंकि लेखक का मूल उद्देश्य परोपकार ही होता है। महर्षि वेदव्यास ने यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्‌ (अर्थात्‌ जो इसमें है वह अन्य ग्रन्थों में है तथा जो इसमें नहीं; वह कहीं नहीं है’’) की घोषणा करने वाले विशालकाय ग्रन्थ महाभारत की रचना की तथा अठारह पुराण लिखे और यह सब लिखने के बाद अपने प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए कहा कि –

अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्‌।

परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम्‌।

परोपकार दूसरों की भलाई करना है, यही मेरे इन ग्रन्थों के लिखने का प्रयोजन है। अत: इस शोध-पत्र के लेख परोपकारपरक होने चाहिये, जिनमें स्पष्टत: दूसरों का हित झलकता है। लेख ऐसा नहीं होना चाहिये,जिसको पढ़कर दूसरों को दु:ख की अनुभूति हो, अथवा जिसका भाव समाज में परपीडन पैदा करे। जब इस पत्रिका में लेखक का यह प्रयोजन होगा, तभी पत्रिका अपने मूल प्रयोजन परोपकार को प्राप्त कर सकेगी। यह विदित हो कि अनुसन्धान पत्रिका में लिखित लेख का उच्चशिक्षा में अपना एक अलग महत्त्व है। इसमें प्रकाशित लेख लेखक की योग्यता में वृद्धि करते है। प्राय: लेखों में आत्माभिव्यक्ति के अभाव में पिष्टपेषण प्रवृत्ति ही अधिकतर परिलक्षित होती है। यह सब लेखक की अपनी आत्मा तथा विशेषज्ञ के प्रखर परीक्षण पर निर्भर है।

इस प्रकार पत्रिका ‘वाक्‌ सुधा’ अपनी अमृतवाणी सर्वत्र प्रसृत करती हुई समाज में कुप्रथाओं, कुरीतियों को मिटाने वाले शोधपरक लेखों द्वारा परोपकार परक समाज की स्थापना करे, यही इसका मूल उद्देश्य है।

सम्पादक